सोमवार, 26 दिसंबर 2011

6, कृष्ण कुमार यादव व उनकी लघुकथाएं:

पाठकों को बिना किसी भेदभाव के अच्छी लघुकथाओं व लघुकथाकारों से रूबरू कराने के क्रम में हम इस बार प्रसिद्ध साहित्यकार श्री कृष्ण कुमार यादव की लघुकथाएं उनके फोटो, परिचय के साथ प्रस्तुत कर रहे हैं। आशा है पाठकों को श्री यादव की लघुकथाओं व उनके बारे में जानकर अच्छा लगेगा।-किशोर श्रीवास्तव 

परिचयः 
 10 अगस्त, 1977 को तहबरपुर, आजमगढ़ (उ. प्र.) में जन्म. आरंभिक शिक्षा जवाहर नवोदय विद्यालय, जीयनपुर-आजमगढ़ में एवं तत्पश्चात इलाहाबाद विश्वविद्यालय से वर्ष 1999 में राजनीति शास्त्र में परास्नातक. वर्ष 2001 में भारत की प्रतिष्ठित सिविल सेवामें चयन। सम्प्रति भारतीय डाक सेवाके अधिकारी। सूरत, लखनऊ और कानपुर में नियुक्ति के पश्चात फिलहाल अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में निदेशक पद पर आसीन।
      प्रशासन के साथ-साथ साहित्य, लेखन और ब्लागिंग के क्षेत्र में भी प्रवृत्त। कविता, कहानी, लेख, लघुकथा, हाइकू, व्यंग्य एवं बाल कविता इत्यादि विधाओं में लेखन. देश की प्राय: अधिकतर प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं - समकालीन भारतीय साहित्य, नया ज्ञानोदय, कादम्बिनी, सरिता, नवनीत, वर्तमान साहित्य, आजकल, इन्द्रप्रस्थ भारतीय, उत्तर प्रदेश, मधुमती, हरिगंधा, हिमप्रस्थ, गिरिराज, पंजाब सौरभ, अकार, अक्षर पर्व, अक्षर शिल्पी, युग तेवर, हम सब साथ साथ, शेष, अक्सर, अलाव, इरावती, उन्नयन, भारत-एशियाई साहित्य, दैनिक जागरण, जनसत्ता, अमर उजाला, राष्ट्रीय सहारा, स्वतंत्र भारत, अजीत समाचार, लोकायत, शुक्रवार, इण्डिया न्यूज, द सण्डे इण्डियन, छपते-छपते, प्रगतिशील आकल्प, युगीन काव्या, आधारशिला, साहिती सारिका, परती पलार, वीणा, पांडुलिपि, समय के साखी, नये पाठक, सुखनवर, प्रगति वार्ता, प्रतिश्रुति, झंकृति, तटस्थ, मसिकागद, शुभ तारिका, सनद, चक्रवाक, कथाचक्र, नव निकष, हरसिंगार, अभिनव कदम, सबके दावेदार, शिवम्, लोक गंगा, आकंठ, प्रेरणा, सरस्वती सुमन, संयोग साहित्य, शब्द, योजना, डाक पत्रिका, भारतीय रेल, अभिनव, प्रयास, अभिनव प्रसंगवश, अभिनव प्रत्यक्ष, समर लोक, शोध दिशा, अपरिहार्य, संवदिया, वर्तिका, कौशिकी, अनंतिम, सार्थक, कश्फ, उदंती, लघुकथा अभिव्यक्ति, गोलकोंडा दर्पण, संकल्य, प्रसंगम, पुष्पक, दक्षिण भारत, केरल ज्योति, द्वीप लहरी, युद्धरत आम आदमी, बयान, हाशिये की आवाज, अम्बेडकर इन इण्डिया, दलित साहित्य वार्षिकी, आदिवासी सत्ता, आश्वस्त, नारी अस्मिता, बाल वाटिका, बाल प्रहरी, बाल साहित्य समीक्षा इत्यादि में रचनाओं का प्रकशन.
      इंटरनेट पर विभिन्न वेब पत्रिकाओं-अनुभूति, अभिव्यक्ति, सृजनगाथा, साहित्यकुंज, साहित्यशिल्पी, लेखनी, कृत्या, रचनाकार, हिन्दी नेस्ट, हमारी वाणी, लिटरेचर इंडिया, कलायन इत्यादि इत्यादि सहित ब्लॉग पर रचनाओं का निरंतर प्रकाशन. व्यक्तिश: 'शब्द-सृजन की ओर' (www.kkyadav.blogspot.com/) और 'डाकिया डाक लाया'(www.dakbabu.blogspot.com/) एवं युगल रूप में सप्तरंगी प्रेम,(www.saptrangiprem.blogspot.com/) उत्सव के रंग (www.utsavkerang.blogspot.com/) और बाल-दुनिया (www.balduniya.blogspot.com/) ब्लॉग का सञ्चालन. इंटरनेट पर 'कविता कोश' में भी कविताएँ संकलित. 50 से अधिक पुस्तकों/संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित. आकाशवाणी लखनऊ, कानपुर व पोर्टब्लेयर, Red FM कानपुर और दूरदर्शन पर कविताओं, लेख, वार्ता और साक्षात्कार का प्रसारण.
अब तक कुल 5 कृतियाँ प्रकाशित- 'अभिलाषा' (काव्य-संग्रह,2005) 'अभिव्यक्तियों के बहाने' 'अनुभूतियाँ और विमर्श' (निबंध-संग्रह, 2006 2007), 'India Post : 150 Glorious Years' (2006) एवं 'क्रांति-यज्ञ : 1857-1947 की गाथा' . व्यक्तित्व-कृतित्व पर 'बाल साहित्य समीक्षा' (सं. डा. राष्ट्रबंधु, कानपुर, सितम्बर 2007) और 'गुफ्तगू' (सं. मो. इम्तियाज़ गाज़ी, इलाहाबाद, मार्च 2008) पत्रिकाओं द्वारा विशेषांक जारी. व्यक्तित्व-कृतित्व पर एक पुस्तक 'बढ़ते चरण शिखर की ओर: कृष्ण कुमार यादव' (सं0- दुर्गाचरण मिश्र, 2009) प्रकाशित. सिद्धांत: Doctrine (कानपुर) व संचार बुलेटिन (लखनऊ) अंतराष्ट्रीय शोध जर्नल में संरक्षक व परामर्श सहयोग। साहित्य सम्पर्क’ (कानपुर) पत्रिका में सम्पादन सहयोग। सरस्वती सुमन‘ (देहरादून) पत्रिका के लघु-कथा विशेषांक (जुलाई-सितम्बर, 2011) का संपादन। विभिन्न स्मारिकाओं का संपादन।
      विभिन्न प्रतिष्ठित साहित्यिक-सामाजिक संस्थानों द्वारा विशिष्ट कृतित्व, रचनाधर्मिता और प्रशासन के साथ-साथ सतत् साहित्य सृजनशीलता हेतु 50 से ज्यादा सम्मान और मानद उपाधियाँ प्राप्त। अभिरूचियों में रचनात्मक लेखन व अध्ययन, चिंतन, ब्लागिंग, फिलेटली, पर्यटन इत्यादि शामिल.
बकौल पद्मभूषण गोपाल दास 'नीरज' - ‘‘ श्री कृष्ण कुमार यादव यद्यपि एक उच्च पदस्थ सरकारी अधिकारी हैं, किन्तु फिर भी उनके भीतर जो एक सहज कवि है वह उन्हें एक श्रेष्ठ रचनाकार के रूप में प्रस्तुत करने के लिए निरन्तर बेचैन रहता है। उनमें बुद्धि और हृदय का एक अपूर्व सन्तुलन है। वो व्यक्तिनिष्ठ नहीं समाजनिष्ठ कवि हैं जो वर्तमान परिवेश की विद्रूपताओं, विसंगतियों, षडयन्त्रों और पाखण्डों का बड़ी मार्मिकता के साथ उद्घाटन करते हैं।’’
संपर्क:  कृष्ण कुमार यादव, निदेशक डाक सेवा, अंडमान व निकोबार द्वीप समूह, पोर्टब्लेयर-744101
email: kkyadav.y@rediffmail.com
Blogs: www.kkyadav.blogspot.com, www.dakbabu.blogspot.com

लघुकथाएं:

प्यार का अंजाम
      हर में चारों तरफ दंगा फैल गया था।
”......मारो.....मारो....बचाओ...बचाओकी आर्तनाद चीखें सुनायी दे रही थीं।
एक आवाज उभरी- ‘‘मार डालो इन हिन्दुओं को। इनके लड़के ने हमारी लड़की को भगाकर उसको नापाक किया है।’’
      दूसरी आवाज उभरी- ‘‘छोड़ना नहीं इन मुसलमानों को। इनकी लड़की ने हमारे लड़के को बहला-फुसलाकर उसका धर्म भ्रष्ट कर दिया है।’’
ऐसी ही न जाने कितनी आवाजें आतीं और हर आवाज के साथ चारों तरफ खून का फव्वारा फूट पड़ता।
      इन सबसे बेपरवाह, मंदिर के कोटर के भीतर बैठा कबूतर उड़ा और सामने स्थित मस्जिद की दीवार पर बैठी कबूतरी के साथ चोंच मिलाकर गुटरगूं-गुटरगूं करने लगा।
      इस जगत का विधाता अपने ही बनाये दो प्राणियों के प्यार का अंजाम देख रहा था और खामोश था......!!!

रोशनी
      मिट्टी का दीया खामोशी से कोने में आलोकित हो रहा था कि बल्ब ने हँसते हुए पूछा- तुम्हारे जलने का क्या औचित्य ?“

     
दीया खामोश रहा, मुस्कुराता रहा।

     
बल्ब ने फिर कहा- मेरे प्रकाश की चकाचैंध के सामने हर कोई नतमस्तक है, फिर तुम्हारी क्या बिसात?“

     
दीया फिर भी खामोश रहा।

     
बल्ब को बहुत तेज़ गुस्सा आया। उसने कहा- ‘‘लगता है तुम्हें मुझसे अपने अस्तित्व पर खतरा महसूस हो रहा है, इसीलिए खामोश हो।“ .......

     
अचानक बाहर ज़ोर की बिजली कौंधी और तेज़ हवाओं के साथ पानी बरसने लगा। इसी के साथ बिजली गुल हो गई और बल्ब की रोशनी भी खत्म हो गई। पर दीये की लौ अभी भी कोने में आलोकित हो रही थी। दीया मुस्कुरा रहा था और बल्ब सामने की दीवार पर बेजान-सा लटका था।

गुरुवार, 15 दिसंबर 2011

5, दिलबाग विर्क व उनकी लघुकथाएं:


पाठकों को बिना किसी भेदभाव के अच्छी लघुकथाओं व लघुकथाकारों से रूबरू कराने के क्रम में हम इस बार प्रसिद्ध साहित्यकार श्री दिलबाग विर्क की लघुकथाएं उनके फोटो, परिचय के साथ प्रस्तुत कर रहे हैं। आशा है पाठकों को श्री दिलबाग की लघुकथाओं व उनके बारे में जानकर अच्छा लगेगा।-किशोर श्रीवास्तव


नाम/पता-दिलबाग विर्क
गाँव- मसीतां, डबवाली, सिरसा , हरियाणा- 125104
मोबाईल- 9541521947 email- dilbagvirk23@gmail.com
व्यवसाय- अध्यापन (प्रवक्ता-हिंदी)
प्रकाशन- दो पुस्तकें प्रकाशित
1.
चंद आँसू चंद अल्फाज (अग़ज़लें)
2.
निर्णय के क्षण ( हरियाणा साहित्य अकादमी के सौजन्य से प्रकाशित कविता संग्रह). इनके अलावा तेरह संकलनों में हिस्सेदारी, शताधिक पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित
ब्लॉग- साहित्य सुरभि http://sahityasurbhi.blogspot.com इधर-उधर http://ds-virk.blogspot.com VIRK'S VIEW http://dsvirk.blogspot.com SQUARE CUT http://dilbagvirk.blogspot.com

लघुकथाएं:

स्वार्थ का पाठ

      '' वीरू को लेकर कहाँ गए हैं ? ''- रला के भतीजे ने उससे पूछा. 
   वीरू नाम है बछड़े का. ये नामकरण भी उसी ने किया है. इसके पीछे उसका तर्क है जब हम सबका नाम है तो बछड़े का भी होना चाहिए. आदमियों, पशुओं, पक्षियों सबसे अपनत्व का भाव बच्चों का ही काम है वरना हम तो...
      '' बाहर कहीं दूर छोड़ने गए हैं. ''- सरला ने उत्तर दिया.
      '' तो क्या सोना ( उसी के द्वारा दिया गया बछिया का नाम ) को भी छोडकर आएँगे.- उसने नया प्रश्न दागा.
      '' नहीं. ''
      '' क्यों सोना को क्यों नहीं ?''
      '' वह बड़ी होकर गाय बनेगी, दूध देगी. ''
      '' और वीरू ?''
      '' वह बड़ा होकर बैल बनता. खेतों में अब ट्रेक्टर हैं, बैलों की जरूरत नहीं, इसलिए वह हमारे किसी काम का नहीं था. ''
      '' जो काम का नहीं होता, क्या उसे बाहर छोड़ देते हैं ?''
      '' हाँ. '' - सरला ने बात से पीछा छुडवाने की कोशिश करते हुए संक्षिप्त उत्तर दिया.
      '' जब हम काम के नहीं रहेंगे तब हमें भी बाहर छोड़ दिया जाएगा. '' - एक और घातक
प्रश्न सरला के सामने था. उसके इस प्रश्न का कोई उत्तर उसके पास नहीं था. हाँ, इतना अहसास तो उसे हो ही चुका था कि हमारे कृत्य ही बच्चों को स्वार्थ का  पहला पाठ पढ़ा देते हैं.


गरीबी

        'अरे कल्लू मजदूरी पर चलेगा' - मैंने कल्लू से पूछा, जो अपने झोंपड़े के आगे
अलाव पर तप रहा था. वैसे आज ठंड कोई ज्यादा नहीं थी. हाँ, सुब्ह-सुब्ह जो ठंडक
फरवरी के महीने में होती है, वह जरूर थी. 
     कल्लू ने मेरी ओर गौर से देखा और कहा- ' अभी बताते हैं साहिब' और इतना कहकर वह खड़ा हो गया और झोंपड़े के दरवाजे पर जाकर आवाज दी- ' अरे मुनिया की माँघर में राशन है या...?'       
     उसके प्रश्न के उत्तर में अंदर से आवाज आई- ' आज के दिन का तो है.'
         यह सुनते ही कल्लू, जो मुझे लग रहा था कि वह काम पर चलने को तैयार है, पुन: अलाव के पास आकर बैठते हुए बोला- 'नहीं, साहिब आज हम नहीं जाएगा.'
         'क्यों?'
         क्यों क्या? बस नहीं जाएगा. ठण्ड के दिन में काम करना क्या जरूरी है?'
         'अगर घर में राशन न होता तो?'
       'तब और बात होती, अब आज के दिन का तो है न. उसके इस उत्तर को सुनकर मैं गरीबी के कारणों पर सोचते हुए नए मजदूर की तलाश में चल पड़ा.

                                     सोच
                         
     बाल मजदूरी को रोकने के लिए जन-जागृति पैदा करने हेतु शहर भर में स्लोगन लिखने, बैनर लगाने का कार्य प्रगति पर था. विचारोत्तेजक और आकर्षक स्लोगन पढ़कर हर कोई प्रभावित हो रहा था. शहर भर में बैनर लगा देने से बाल मजदूरी रुक जाएगी, सब यही सोच रहे थे. दूसरी तरफ इन स्लोगनों का आशय समझने में असमर्थ नन्हें बालकों की सोच यथाशीघ्र सभी तयशुदा स्थानों पर स्लोगन लिखे बैनर लगाकर अपनी मजदूरी हासिल करने की थी.

आज का सच

     अध्यापक ने बच्चों को ईमानदार लकडहारा कहानी याद करने के लिए दी थी. अगले दिन कहानी सुनी जा रही थी. सुनाते वक्त एक बच्चे की जवान लडखड़ाई." लकडहारा  ईमानदार आदमी था", कहने की बजाए वह बोला-" ईमानदार आदमी लकडहारा था."    
          अध्यापक सोच रहा है कि यही तो आज के वक्त का सच है कि ईमानदार आदमी लकडहारा ही है, अर्थात मजदूर है, गरीब है, बेबस है, मामूली आदमी है और जो भ्रष्ट है वह मालिक है, शहंशाह है.

बुधवार, 7 दिसंबर 2011

4, सुभाष नीरव व उनकी लघुकथाएं:


पाठकों को बिना किसी भेदभाव के अच्छी लघुकथाओं व लघुकथाकारों से रूबरू कराने के क्रम में हम इस बार प्रसिद्ध साहित्यकार श्री सुभाष नीरव की लघुकथाएं उनके फोटो, परिचय के साथ प्रस्तुत कर रहे हैं। आशा है पाठकों को श्री नीरव की लघुकथाओं व उनके बारे में जानकर अच्छा लगेगा।-किशोर श्रीवास्तव 

 

परिचयः हिंदी कथाकार/कवि सुभाष नीरव (वास्तविक नामः सुभाष चन्द्र) पिछले लगभग 35 वर्षों से कहानी, लघुकथा, कविता और अनुवाद विधा में सक्रिय हैं। आपके अब तक तीन कहानी-संग्रह- दैत्य तथा अन्य कहानियाँ (1990), औरत होने का गुनाह (2003) और आखिरी पड़ाव का दु:ख (2007) प्रकाशित हो चुकी हैं। इनके अतिरिक्त, दो कविता-संग्रह- यत्किंचित (1979) और रोशनी की लकीर (2003), एक बाल कहानी-संग्रह- मेहनत की रोटी (2004), एक लधुकथा संग्रह- कथाबिन्दु (रूपसिंह चंदेह और हीरालाल नागर के साथ) भी प्रकाशित हो चुके हैं। आपकी अनेक कहानियाँ, लधुकथाएँ और कविताएँ पंजाबी, तेलगू, मलयालम और बांगला भाषा में अनूदित हो चुकी हैं। हिंदी में मौलिक लेखन के साथ-साथ पिछले तीन दशकों से आप अपनी माँ-बोली पंजाबी भाषा की सेवा मुख्यत: अनुवाद के माध्यम से करते आ रहे हैं। आपकी अब-तक  पंजाबी से हिंदी में अनूदित डेढ़ दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें- काला दौर, पंजाबी की चर्चित लघुकथाएं, कथा पंजाब-2, कुलवंत सिंह विर्क की चुनिंदा कहानियाँ, तुम नहीं समझ सकते (जिन्दर का कहानी संग्रह), छांग्या रुक्ख (पंजाबी के दलित युवा कवि व लेखक बलबीर माधोपुरी की आत्मकथा), पाये से बंधा हुआ काल (जतिंदर सिंह हांस का कहानी संग्रह), रेत (हरजीत अटवाल का उपन्यास) आदि प्रमुख हैं। मूल पंजाबी में लिखी दर्जन भर कहानियों का आकाशवाणी, दिल्ली से प्रसारण भी हो चुका है।
आप हिंदी में लघुकथा लेखन के साथ-साथ, पंजाबी-हिंदी लधुकथाओं के श्रेष्ठ अनुवाद हेतु माता शरबती देवी स्मृति पुरस्कार 1992 तथा मंच पुरस्कार,2000 से सम्मानित भी हु हैं।
सम्प्रति: भारत सरकार के पोत परिवहन विभाग में अनुभाग अधिकारी(प्रशासन)
सम्पर्क: 372, टाईप-4, लक्ष्मी बाई नगर, नई दिल्ली-110023 ईमेलः subhashneerav@gmail.com
दूरभाष: 09810534373, 011-24104912 (निवास)

लघुकथाएं:
एक और कस्बा
देहतोड़ मेहनत के बाद, रात की नींद से सुबह जब रहमत मियां की आँख खुली तो उनका मन पूरे मूड में था। छुट्टी का दिन था और कल ही उन्हें पगार मिली थी। सो, आज वे पूरा दिन घर में रहकर आराम फरमाना और परिवार के साथ बैठकर कुछ उम्दा खाना खाना चाहते थे। उन्होंने बेगम को अपनी इस ख्वाहिश से रू-ब-रू करवाया। तय हुआ कि घर में आज गोश्त पकाया जाए। रहमत मियां का मूड अभी बिस्तर छोड़ने का न था, लिहाजा गोश्त लाने के लिए अपने बेटे सुक्खन को बाजार भेजना मुनासिब समझा और खुद चादर ओढ़कर फिर लेट गये।
                सुक्खन थैला और पैसे लेकर जब बाजार पहुँचा, सुबह के दस बज रहे थे। कस्बे की गलियों-बाजारों में चहल-पहल थी। गोश्त लेकर जब सुक्खन लौट रहा था, उसकी नज़र ऊपर आकाश में तैरती एक कटी पतंग पर पड़ी। पीछे-पीछे, लग्गी और बांस लिये लौंडों की भीड़ शोर मचाती भागती आ रही थी। ज़मीन की ओर आते-आते पतंग ठीक सुक्खन के सिर के ऊपर चक्कर काटने लगी। उसने उछलकर उसे पकड़ने की कोशिश की, पर नाकामयाब रहा। देखते ही देखते, पतंग आगे बढ़ गयी और कलाबाजियाँ खाती हुई मंदिर की बाहरी दीवार पर जा अटकी। सुक्खन दीवार के बहुत नज़दीक था। उसने हाथ में पकड़ा थैला वहीं सीढ़ियों पर पटका और फुर्ती से दीवार पर चढ़ गया। पतंग की डोर हाथ में आते ही जाने कहाँ से उसमें गज़ब की फुर्ती आयी कि वह लौंडों की भीड़ को चीरता हुआ-सा बहुत दूर निकल गया, चेहरे पर विजय-भाव लिये !
                काफी देर बाद, जब उसे अपने थैले का ख़याल आया तो वह मंदिर की ओर भागा। वहाँ पर कुहराम मचा था। लोगों की भीड़ लगी थी। पंडित जी चीख-चिल्ला रहे थे। गोश्त की बोटियाँ मंदिर की सीढ़ियों पर बिखरी पड़ी थीं। उन्हें हथियाने के लिए आसपास के आवारा कुत्ते अपनी-अपनी ताकत के अनुरूप एक-दूसरे से उलझ रहे थे।
                सुक्खन आगे बढ़ने की हिम्मत न कर सका। घर लौटने पर गोश्त का यह हश्र हुआ जानकर यकीनन उसे मार पड़ती। लेकिन वहाँ खड़े रहने का खौफ भी उसे भीतर तक थर्रा गया- कहीं किसी ने उसे गोश्त का थैला मंदिर की सीढ़ियों पर पटकते देख न लिया हो ! सुक्खन ने घर में ही पनाह लेना बेहतर समझा। गलियों-बाजारों में से होता हुआ जब वह अपने घर की ओर तेजी से बढ़ रहा था, उसने देखा- हर तरफ अफरा-तफरी सी मची थी, दुकानों के शटर फटाफट गिरने लगे थे, लोग बाग इस तरह भाग रहे थे मानो कस्बे में कोई खूंखार दैत्य घुस आया हो!

चोर
मि. नायर ने जल्दी से पैग अपने गले से नीचे उतारा और खाली गिलास मेज पर रख बैठक में आ गये।
                सोफे पर बैठा व्यक्ति उन्हें देखते ही हाथ जोड़कर उठ खड़ा हुआ।
                ‘रामदीन तुम ? यहाँ क्या करने आये हो ?’ मि. नायर उसे देखते ही क्रोधित हो उठे।
                ‘साहबमुझे माफ कर दो, गलती हो गयी साहब... मुझे बचा लो साहब... मेरे छोटे-छोटे बच्चे हैं... मैं बरबाद हो जाऊँगा साहब।’  रामदीन गिड़गिड़ाने लगा।
                ‘मुझे यह सब पसन्द नहीं है। तुम जाओ।मि. नायर सोफे में धंस-से गये और सिगरेट सुलगाकर धुआँ छोड़ते हुए बोले, ‘तुम्हारे केस में मैं कुछ नहीं कर सकता। सुबूत तुम्हारे खिलाफ हैं। तुम आफिस का सामान चुराकर बाहर बेचते रहे, सरकार की आँखों में धूल झोंकते रहे। तुम्हें कोई नहीं बचा सकता।
                ‘ऐसा मत कहिये साहब... आपके हाथ में सब कुछ है।रामदीन फिर गिड़गिड़ाने लगा, ‘आप ही बचा सकते हैं साहब, यकीन दिलाता हूँ, अब ऐसी गलती कभी नहीं करुँगा, मैं बरबाद हो जाऊँगा साहब... मुझे बचा लीजिए... मैं आपके पाँव पड़ता हूँ, सर।’  कहते-कहते रामदीन मि. नायर के पैरों में लेट गया।
                ‘अरे-अरे, क्या करते हो। ठीक से वहाँ बैठो।
                रामदीन को साहब का स्वर कुछ नरम प्रतीत हुआ। वह उठकर उनके सामने वाले सोफे पर सिर झुकाकर बैठ गया।
                ‘यह काम तुम कब से कर रहे थे ?’
                ‘साहब, कसम खाकर कहता हूँ, पहली बार किया और पकड़ा गया। बच्चों के स्कूल की फीस देनी थी, पैसे नहीं थे। बच्चों का नाम कट जाने के डर से मुझसे यह ग$लत काम हो गया।
                इस बीच मि. नायर के दोनों बच्चे दौड़ते हुए आये और एक रजिस्टर उनके आगे बढ़ाते हुए बोले, ‘पापा पापा, ये सम ऐसे ही होगा न ?’ मि. नायर का चेहरा एकदम तमतमा उठा। दोनों बच्चों को थप्पड़ लगाकर लगभग चीख उठे, ‘जाओ अपने कमरे में बैठकर पढ़ो। देखते नहीं, किसी से बात कर रहे हैं, नानसेंस!
                बच्चे रुआँसे होकर तुरन्त अपने कमरे में लौट गये।
                ‘रामदीन, तुम अब जाओ। दफ्तर में मिलना।’  कहकर मि. नायर उठ खड़े हुए। रामदीन के चले जाने के बाद मि. नायर बच्चों के कमरे में गये और उन्हें डाँटने-फटकारने लगे। मिसेज नायर भी वहाँ आ गयीं। बोलीं, ‘ये अचानक बच्चों के पीछे क्यों पड़ गये ? सवाल पूछने ही तो गये थे।
                ‘और वह भी यह रजिस्टर उठायेआफिस के उस आदमी के सामने जो...कहते-कहते वह रुक गये। मिसेज नायर ने रजिस्टर पर दृष्टि डाली और मुस्कराकर कहा, ‘मैं अभी इस रजिस्टर पर जिल्द चढ़ा देती हूँ।
                मि. नायर अपने कमरे में गये। टी.वी. पर समाचार आ रहे थे। देश में करोड़ों रुपये के घोटाले से संबंधित समाचार पढ़ा जा रहा था। मि. नायर ने एक लार्ज पैग बनायाएक सांस में गटका और मुँह बनाते हुए रिमोट लेकर चैनल बदलने लगे।

कबाड़
बेटे को तीन कमरों का फ्लैट आवंटित हुआ था। मजदूरों के संग मजदूर बने किशन बाबू खुशी-खुशी सामान को ट्रक से उतरवा रहे थे। सारी उम्र किराये के मकानों में गला दी। कुछ भी हो, खुद तंगी में रहकर बेटे को ऊँची तालीम दिलाने का फल ईश्वर ने उन्हें दे दिया था। बेटा सीधा अफसर लगा और लगते ही कम्पनी की ओर से रहने के लिए इतना बड़ा फ्लैट उसे मिल गया।
                बेटा सीधे आफिस चला गया था। किशन बाबू और उनकी बहू दो मजदूरों की मदद से सारा सामान फ्लैट में लगवाते रहे।
                दोपहर को लंच के समय बेटा आया तो देखकर दंग रह गया। सारा सामान करीने से सजा-संवारकर रखा गया था। एक बैडरूम, दूसरा ड्राइंगरूम और तीसरा पिताजी और मेहमानों के लिए। वाह !
                बेटे ने पूरे फ्लैट का मुआयना किया। बड़ा-सा किचन, किचन के साथ बड़ा-सा एक स्टोर, जिसमें फालतू का काठ-कबाड़ भरा पड़ा था। उसने गौर से देखा और सोचने लगा। उसने तुरन्त पत्नी को एक ओर ले जाकर समझाया, ‘देखो, स्टोर से सारा काठ-कबाड़ बाहर फिंकवाओ। वहाँ तो एक चारपाई बड़े आराम से आ सकती है। ऐसा करो, उसकी अच्छी तरह सफाई करवाकर पिताजी की चारपाई वहीं लगवा दो। तीसरे कमरे को मैं अपना रीडिंगरूम बनाऊँगा।
                रात को स्टोर में बिछी चारपाई पर लेटते हुए किशन बाबू को अपने बूढ़े शरीर से पहली बार कबाड़-सी दुर्गन्ध आ रही थी।